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इमाम की ज़रूरत

पैग़म्बर (स.) के बाद इमाम, ख़लीफ़ा या रसूल के जानशीन के वजूद की ज़रूरत को इस्लाम के सभी मज़हबों ने क़बूल किया है। इस मसले की अहमियत इतनी ज़्यादा है कि जब अहले सुन्नत पर एतेराज़ किया जाता है कि ख़लीफ़ ए अव्वल व दोव्वुम व कुछ असहाब रसूल के ग़ुस्ल, दफ़्न व कफ़न को छोड़ कर सक़ीफ़ा  की कीररवाई में क्यों लग गये ? तो वह जवाब देते हैं कि क्योंकि ते इस्लामी उम्मत की रहबरी व इमामत का मसला, रसूल के ग़ुस्ल, कफ़न व दफ़न से ज़्यादा अहम था।

अहले सुन्नत की इस दलील से मालूम होता है कि इमाम की ज़रूरत बहुत अहम मसाइल में से है। अहले सुन्नत इमामत की ज़रूरत के कभी अक़्ली दलीलें पेश करते हैं और कभी नक़्ली दलीले लाते जैसे कि वह बयान करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि जो अपने ज़माने के इमाम को पहचाने बग़ैर मर जाये तो उसकी मौत जिहालत की मौत है।

यह हदीस शिया व सुन्नी दोंनों फ़िर्क़ों में मौजूद है।

शरहे अक़ाइदे नसफ़ियः व शरहे मक़ासिद जैसी इल्मे कलाम की किताबों में इसी हदीस के ज़रिये इमाम की ज़रूरत पर बहस की है। चूँकि इस हदीस की बिना पर हर ज़माने में एक इमाम का वजूद ज़रूरी है, लिहाज़ा हमारे ज़मान में भी एक इमाम का होना ज़रूरी है।